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राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःउन्मादिनी


पवित्र ईर्ष्या
[8 ]

विनोद घबराकर बोल उठे, 'नहीं अखिल तुम यहाँ से कहीं जाओ मत! भाई, तुम दो साल के बाद तो लौटे हो। फिर पिता की बदली यहाँ हो गई, तो सौभाग्य से हम दोनों को फिर से साथ-साथ रहने का अवसर मिला है। उसे मैं व्यर्थ ही नहीं जाने देना चाहता। यहाँ रहकर क्या तुम विमला से मिलना-जुलना कम नहीं कर सकते?”
“अरे भाई! तुम जो कहो सब कर सकता हूँ, पर बारह बज रहे हैं जाओ, सोने भी दोगे या नहीं,' अखिल ने हँसते हुए कहा।

इसके बाद विनोद गए अपने घर, और अखिल अपने बिस्तर पर । पूरा एक महीना बीत गया। न अखिलेश आए और न विमला से उनकी कभी मुलाकात ही हुई। विमला इस बीच कई बार अपनी माँ के घर भी आ-जा चुकी थी, किंतु अखिलेश से वहाँ भी न मिल सकी | वह हृदय से तो अखिलेश से मिलना चाहती थी पर मुँह से कुछ कहने का साहस न होता था। एक दिन वह माँ के घर जा रही थी, रास्ते में उसे अखिलेश कहीं जाते हुए दिखे। विमला का हृदय बड़ी जोर से धड़कने लगा। एक बार उसकी तबीयत हुई, कार रुकवाकर, अखिलेश से उसके इस प्रकार न आने का कारण पूछ ले, किंतु दूसरे ही क्षण उसे ख़याल आ गया कि वह अखिलेश के न आने का कारण पूछ तो लेगी; किंतु इस तनिक-सी बात का मूल्य उसे कितना अधिक चुकाना पड़ेगा। अपनी प्रसन्‍नता-अप्रसन्‍नता की उसे उतनी परवाह न थी-विनोद की शांति न जाने कितने समय के लिए भंग हो जाएगी। उनकी मानसिक वेदना का विचार आते ही उसने कार बढ़वा ली, रुकी नहीं, पर उस दिन अखिलेश को वह दिन भर भूल न सकी, उसे वह दिन याद आ रहा था जिस दिन उसने दो पैसे में अखिलेश को भाई के रूप में बाँधा था।

इसी प्रकार कुछ दिन और बीत गए, राखी का त्यौहार आया। विमला आज अपने भ्रातृ-प्रेम को न रोक सकी । वैसे वह चाहती तो माँ के घर जाकर वहाँ अपनी माँ के द्वारा अखिलेश को बुलवा सकती थी, किंतु विनोद से छुपाकर वह कुछ भी न करना चाहती थी। इसलिए वह विनोद के पास आकर कुछ संकोच के साथ बोली, आज राखी है। तुम मुझे अखिल भैया के घर ले चलना, मैं उन्हें रखी बाँध आऊँगी।

विनोद किसी पुस्तक को एकाग्रचित्त से पढ़ रहे थे। विमला की बात कदाचित्‌ बिना सुने ही उन्होंने सिर झुकाए-ही-झुकाए कह दिया, अच्छा।
विमला को मुँहमाँगा वरदान मिला। उसने आगे और कोई बातचीत न की। कौन जाने बातचीत के सिलसिले में कोई बहस छिड़ जाए और वह अखिलेश को राखी बाँधने न जा सके।

आज विमला बहुत प्रसन्‍न थी। उसने कई तरह के पकवान, जो अखिलेश को अच्छे लगते थे, अपने हाथ से बनाए। तरह-तरह के फल मँगवाए और शाम को राखी बाँधने के लिए जाने की तैयारी करने लगी। एक दासी द्वारा उसने अखिलेश के पास संदेशा भिजवा दिया कि आज शाम को छह बजे हम दोनों अखिल भैया से मिलने आवेंगे। वे घर ही रहें, कहीं जाएँ नहीं। इस संदेश से अखिल को कुछ आश्चर्य न हुआ क्योंकि उस दिन राखी थी। विमला दिन भर बड़ी उमंग और उत्सुकता से संध्या की प्रतीक्षा करती रही; किंतु शाम को जब छह बज गए और विनोद ने अपनी पुस्तकों पर से सिर न उठाया, तो धीरे से जाकर वह विनोद के पास बैठ गई।
विनोद ने सप्रेम दृष्टि से विमला की ओर देखकर कहा, कहो विन्‍नो रानी, आज कुछ खिलाओगी नहीं?
विमला ने तुरंत अपने बनाए हुए कुछ पकवान तश्तरी में लाकर रख दिए, विनोद ने उन्हें खाया । विनोद को इतना प्रसन्‍न देखकर विमला का साहस बढ़ गया था, बोली, देखो छह से साढ़े छह बज गए, अखिल भैया के घर अब कब चलोगे?

विनोद की हँसी कुछ मिश्रित उदासीनता में परिणत हो गई। दृष्टि का प्रेम-भाव तिरस्कार में बदल गया, कुछ क्षण तक चुप रहकर, वे रूखे स्वर में बोले, मैं तो न जाऊँगा। तुम जाना चाहो तो चली जाओ।

विमला को जैसे काठ-सा मार गया। वह विनोद के इस भाव परिवर्तन को समझ न सकी, कुछ चिढ़कर बोली, 'तुम्हें सवेरे ही कह देना था कि न चलेंगे तो मैं ख़बर ही न भिजवाती ।'

-मैंने तो नहीं कहा था कि मैं तुम्हारे साथ अखिल के घर चलूँगा पर तुमने ख़बर भिजवा दी हो तो चली जाओ, मैं रोकता नहीं। हाँ एक बार नहीं अनेक बार, मैं तुम पर यह प्रकट कर चुका हूँ कि अखिल से तुम्हारा मिलना-जुलना मुझे पसंद नहीं है। फिर भी तुम जैसे उसके लिए व्याकुल-सी रहा करती हो, यदि तुम्हें मेरी मानसिक वेदनाओं का कुछ खयाल नहीं है तो जाओ! पर मुझे क्यों अपने साथ घसीटना चाहती हो?
विमला सिहर उठी। कुछ देर बाद अपने को सँभालकर बोली, 'अखिल भैया से ही क्या, तुम न चाहोगे तो मैं अम्मा और बाबू जी से भी न मिलूँगी ।'
विनोद ने विमला की बात का कुछ भी उत्तर नहीं दिया और बाहर चले गए। बाहर दरवाजे पर ही उन्हें उनके मित्र की बहिन अंतो मिली जो उनको भी बहुत ज्यादा चाहती थी, भाई की ही तरह, और उन्हें राखी बाँधने आई थी।

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